जनसत्ता से साभार I DELHI I FEB 25, 2015 I 1st Published 2345
लेकिन हो पाना
एक बार, हालांकि सिर्फ एक बार ही
यह पार्थिव हो पाना लगता है टिकाऊ, निरसन से परे
यथासंभव जो हम
पा सकते हैं यहां, वह है अपने को
पूरी तरह से पहचानना
उसमें जो पृथ्वी पर दृश्य है…
- राइनर मारिया
रिल्के
वे जो आधुनिक भारतीय चित्रकला के विविध वैभव में, अथक परिश्रम और
असमाप्य सिसृक्षा में, अचूक उदारता और अडिग एकाग्रता में
विश्वास करते और दिलचस्पी रखते हैं उनके लिए सैयद हैदर रज़ा का इस इतवार 22 फरवरी, 2015 को 93 वर्ष
का हो जाना निश्चय ही सार्थक हर्ष का विषय है।
इन दिनों जब दोपहर को मैं रज़ा फाउंडेशन जाता हूं तो लगभग हर रोज उन्हें दत्तचित्त किसी न किसी कैनवास पर काम करते उनके स्टूडियो में देखता हूं: उनकी उंगलियों में आंखें लग गई लगती हैं- जिस तरह से वे रंग उठाते और उनका कोई अप्रत्याशित सा संयोजन रचते हैं उनसे यही लगता है कि अब उनकी उंगलियां ‘छूती-पकड़ती’ भर नहीं ‘देखती’ भी हैं। एक कृशकाय वयोवृद्ध देह का यह विलक्षण कायाकल्प है: जो मानो बची ही इसलिए है कि उसे रचना है। रज़ा के जन्मस्थान के नजदीक ही जन्मे कवि श्रीकांत वर्मा ने कहा था: ‘जो रचेगा नहीं, कैसे बचेगा!
इन दिनों जब दोपहर को मैं रज़ा फाउंडेशन जाता हूं तो लगभग हर रोज उन्हें दत्तचित्त किसी न किसी कैनवास पर काम करते उनके स्टूडियो में देखता हूं: उनकी उंगलियों में आंखें लग गई लगती हैं- जिस तरह से वे रंग उठाते और उनका कोई अप्रत्याशित सा संयोजन रचते हैं उनसे यही लगता है कि अब उनकी उंगलियां ‘छूती-पकड़ती’ भर नहीं ‘देखती’ भी हैं। एक कृशकाय वयोवृद्ध देह का यह विलक्षण कायाकल्प है: जो मानो बची ही इसलिए है कि उसे रचना है। रज़ा के जन्मस्थान के नजदीक ही जन्मे कवि श्रीकांत वर्मा ने कहा था: ‘जो रचेगा नहीं, कैसे बचेगा!
रज़ा की कला उनकी पार्थिवता का उत्सव
मनाती कला है। दशकों पहले आधुनिकता के विश्व केंद्र पेरिस में रहते हुए उन्होंने
तनाव-उलझाव-द्वंद्व आदि की वर्चस्वशाली आधुनिकता के बरक्स, जिसमें वे दशकों
से फ्रांसवासी होने के कारण खूब रसे-बसे थे, अपनी
वैकल्पिक आधुनिकता रची-गढ़ी थी। यह विकल्प था भारतीय चिंतन के कुछ मूल अभिप्रायों
का कला में पुनरन्वेषण और जीवन, प्रकृति, मानवीय संबंध, अस्तित्व आदि को निस्संकोच
प्रणति देने का विकल्प। यह आधुनिक आपाधापी और गहमागहमी से अलग मध्यप्रदेश के अपने
देहाती प्रायमरी स्कूल के बरामदे में दीवार पर अध्यापक के बनाए बिंदु को याद कर उस
पर, उसमें अंतर्भूत ऊर्जा और संभावना पर लौटना था। बिना
नास्टैल्जिक हुए रज़ा लगातार लौटते रहे हैं, अपने आत्म,
अपने स्वत्व, अपनी जमीन और मिट्टी की
ओर। उनके बचपन की नदी नर्मदा अपने अहरह प्रवाह से न सिर्फ उनके प्रिय शहर मण्डला
को घेरती रही है, उनकी कला की अदम्य निरंतरता एक तरह से
उनके लिए कला-नर्मदा है। वे नर्मदा की तरह उभयतटतीर्थ हैं!
उनके हाल के बनाए चित्रों की तीन
अलग-अलग प्रदर्शनियां दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में ‘आरंभ’
शीर्षक से आयोजित हैं। वे चूंकि मूल और सार-तत्त्व के ही चितेरे
हैं, उन्हें लगता है कि अब भी आरंभ ही हो रहा है: जीवन और
कला की अनंत संभावनाएं हैं। अपनी पार्थिवता में रज़ा अपने को पूरी तरह से पहचान रहे
हैं।
इस अवसर पर कला-आलोचकों और कलाकारों
द्वारा रज़ा की कला पर पुनर्विचार करते हुए नए नौ निबंधों का एक संकलन ‘यट एगेन’ शीर्षक से कोलकाता की आकार प्रकार कलावीथिका प्रकाशित कर रही है। इनमें
चित्रकार कृष्ण खन्ना और मनीष पुष्कले, कलालोचक गीति सेन,
रोशन शहानी, किशोर सिंह, रणजीत होस्कोटे और इना पुरी और कवि उदयन वाजपेयी शामिल हैं।
अशोक वाजपेयी
No comments:
Post a Comment